Omprakash Valmiki describes his life as an untouchable, or Dalit, in the newly independent India of the 1950s. "Joothan" refers to scraps of food left on a plate, destined for the garbage or animals. India's untouchables have been forced to accept and eat joothan for centuries, and the word encapsulates the pain, humiliation, and poverty of a community forced to live at the bottom of India's social pyramid. Although untouchability was abolished in 1949, Dalits continued to face discrimination, economic deprivation, violence, and ridicule. Valmiki shares his heroic struggle to survive a preordained life of perpetual physical and mental persecution and his transformation into a speaking subject under the influence of the great Dalit political leader, B. R. Ambedkar. A document of the long-silenced and long-denied sufferings of the Dalits, Joothan is a major contribution to the archives of Dalit history and a manifesto for the revolutionary transformation of society and human consciousness.
Omprakash Valmiki describes his life as an untouchable, or Dalit, in the newly independent India of the 1950s. "Joothan" refers to scraps of food left on a plate, destined for the garbage or animals. India's untouchables have been forced to accept and eat joothan for centuries, and the word encapsulates the pain, humiliation, and poverty of a community forced to live at the bottom of India's social pyramid. Although untouchability was abolished in 1949, Dalits continued to face discrimination, economic deprivation, violence, and ridicule. Valmiki shares his heroic struggle to survive a preordained life of perpetual physical and mental persecution and his transformation into a speaking subject under the influence of the great Dalit political leader, B. R. Ambedkar. A document of the long-silenced and long-denied sufferings of the Dalits, Joothan is a major contribution to the archives of Dalit history and a manifesto for the revolutionary transformation of society and human consciousness.
ख्यात दलित लेखक ओमप्रकाश वाल्मीकि की इस पुस्तक में देश-समाज के सबसे उपेक्षित तबक़े भंगी या वाल्मीकि की ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य के साथ, मौजूदा वास्तविक स्थिति का सप्रमाण वर्णन करने का प्रयास किया गया है। ‘भंगी’ - शब्द सुनकर ही लोगों की भौहें तन जाती हैं। समाज की उपेक्षा और प्रताड़ना ने उनमें इस हद तक हीनताबोध भर दिया है कि वाल्मीकि समाज के उच्च शिक्षित लोग भी अपनी पहचान छुपाते फिरते हैं। दलितों में दलित यह तबक़ा आर्थिक विपन्नता के दलदल में फँसा है। पुनर्वसन की राजनीति करनेवाले इस तंत्र में इन सफाई कर्मचारियों के पुनर्वसन की जश्रूरत कभी किसी ने महसूस नहीं की। उच्चवर्गीय, ब्राह्मणवादी मानसिकता और सामन्ती सोच-विचार के लोग इन्हें कोई भी सामाजिक अधिकार देने के पक्ष में नहीं हैं। इस पुस्तक का उद्देश्य ऐतिहासिक उत्पीड़न, शोषण और दमन का विश्लेषण करना है। उसकी ऐतिहासिक और सांस्कृतिक पृष्ठभूमि का आकलन करना है, और उसके सामने खड़ी समस्याओं का विवेचन करना है। इसके लिए ऐतिहासिक विवरण ही काफ़ी नहीं हैं, वर्तमान का मूल्यांकन भी उतना ही आवश्यक है। लेखक का उद्देश्य लम्बे भीषण, नारकीय दौर में वाल्मीकि समाज की उपलब्धियों, संघर्षों की खोज कर, ऐसी मिसाल पेश करना है जो भविष्य के अन्धकार से उसे बाहर निकलने की प्रेरणा दे सके।
आज़ादी के पाँच दशक पूरे होने और आधुनिकता के तमाम आयातित अथवा मौलिक रूपों को भीतर तक आत्मसात कर चुकने के बावजूद आज भी हम कहीं-न-कहीं सवर्ण और अवर्ण के दायरों में बँटे हुए हैं। सिद्धान्तों और किताबी बहसों से बाहर, जीवन में हमें आज भी अनेक उदाहरण मिल जाएँगे जिनसे हमारी जाति और वर्णगत असहिष्णुता स्पष्ट दृष्टिगोचर होती है। ‘जूठन’ ऐसे ही उदाहरणों की शृंखला है जिन्हें एक दलित व्यक्ति ने अपनी पूरी संवेदनशीलता के साथ खुद भोगा है। इस आत्मकथा में लेखक ने स्वाभाविक ही अपने उस ‘आत्म’ की तलाश करने की कोशिश की है जिसे भारत का वर्ण-तंत्र सदियों से कुचलने का प्रयास करता रहा है, कभी परोक्ष रूप में, कभी प्रत्यक्षतः। इसलिए इस पुस्तक की पंक्तियों में पीड़ा भी है, असहायता भी है, आक्रोश और क्रोध भी और अपने आपको आदमी का दर्जा दिए जाने की सहज मानवीय इच्छा भी।
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